आजादी की लड़ाई में नकारात्मक भूमिका निभाने वाले अंग्रेजों के कृपापात्र, पेंशनभोगी, वफादार राष्ट्रवादी कैसे?
- आज़ादी की हीरक जयंती पर देश से माफ़ी मांग कर प्रायश्चित करे संघी
रायपुर/08 अगस्त 2022। छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने कहा है कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर को भाजपा और संघ के नेता महान राष्ट्रवादी नेता के तौर पर पेश करते हैं, परंतु ऐतिहासिक तथ्य यह है कि भारतीय स्वतंत्रता संगाम में उनकी भूमिका किसी भी तरह से जिन्ना से कम विवादास्पद नही थी, कईं अर्थों में वह स्पष्टतः जिन्ना से भी विवादास्पद और अंग्रेज परस्ती है। 1911 में जेल पहुंचते ही सावरकर के राष्ट्रवाद का नशा उतर गया और 2 महीने के भीतर ही क्षमा याचना करने लगे। 1921 में जब उनको रत्नागिरी भेजा गया तब से उनके क्रियाकलाप निश्चित रूप से अंग्रेजी हुकूमत के सहयोगी के रूप में रहे, राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने लगे। 1937 में उन पर से पाबंदी पूरी तरह से उठा ले गई जेल से रिहाई के समय सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत से पेंशन मांगी जिससे स्वीकार कर लिया गया और उस जमाने में ₹60 प्रति माह की भारी-भरकम पेंशन राशि देना मंजूर किया और वे अंग्रेजों के कृपापात्र पेंशनभोगी वफादार बन गए। 1934 में श्याम प्रसाद मुखर्जी को अंग्रेजों ने कलकत्ता विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया। 1937 में मोहम्मद अली जिन्ना के मुस्लिम लीग के साथ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में सरकार बनाई। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का श्यामा प्रसाद मुखर्जी और आरएसएस ने जमकर विरोध किया। यहां तक बंगाल के गवर्नर जॉन हरबर्ट को 26 जुलाई 1942 को एक पत्र लिखा और उसमें गांधी और कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करते हुए उसे विफल बनाने के लिए भरपूर सहयोग देने का वादा भी किया था। श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपने पत्र में साफ लिखा था कि आपके मंत्री हाने के नाते हम भारत छोड़ों आंदोलन को विफल करने के लिए सक्रिय सहयोग करेंगे।
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने कहा है कि जब पूरा देश अंग्रेजों के खिलाफ़ आंदोलित था, गांधी और कांग्रेस करो या मरो के नारे के तहत “अंग्रेजो भारत छोड़ो“ आंदोलन चला रहे थे उस समय भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी सावरकर के साथ मिलकर अंग्रेजों का सहयोग कर रहे थे। कांग्रेस और गांधी ने अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा का विरोध किया तो वहीं माफ़ीवीर अंग्रेजों के पेंशन भोगी सावरकर पूरे भारत में घूमकर अंग्रेजी फौज में भारतीयों को भर्ती होने के लिए प्रेरित कर रहे थे। जाहिर है मुस्लिम लीग के साथ बंगाल के वित्तमंत्री और भाजपा और संघ के आदर्श नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी इसमें शामिल थे। वास्तव में श्यामा प्रसाद मुखर्जी का भारत छोड़ों आंदोलन के विरोध का कारण सावरकर द्वारा सभी महासभा सदस्यों को लिखे गये पत्र का जवाब था जिसमें उन्होंने गांधी द्वारा पद त्याग का विरोध करते हुए लिखा था कि अपने पद पर बने रहो। सावरकार का यह प्रसिद्ध पत्र “स्टिक टू दि पोस्ट” नाम से मशहूर है। इससे भी शर्मनाक स्थिति वह थी कि जब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस देश को आजाद करवाने के लिए आजाद हिंद फौज के साथ जान की बाजी लगा रहे थे तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीग के नेतृत्व में बंगाल में बनी सरकार के उप प्रधानमंत्री (उप मुख्यमंत्री) थे। वहीं दूसरी तरफ नेताजी देश को नारा दे रहे थे कि तुम मुझे खुन दो और मैं तुम्हे आजादी दूंगा तो दूसरी तरफ मुस्लिम लीग और संघ-आरएसएस मिलकर ब्रिटिश फौज के लिए भर्ती कैंप चला रहे थे।
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने कहा है कि जिन्ना, सावरकर और श्यामा प्रसाद की दोस्ती और सहयोग का सबसे अनोखा उदाहरण 1939 में दिखाई देता है। अंग्रेजों द्वारा भारत को दूसरे विश्व युद्ध में शामिल करने की घोषणा पर 1939 में गांधी के आहवान पर कांग्रेस के विधायकों ओर मन्त्रियों ने अंतरिम सरकार के अपने पदों से इस्तीफा दे दिया तो जिन्ना ने इस पर खुशी जाहिर करते हुए इसे मुक्ति का दिन बताया और इस मुक्ति के दिन में मुखर्जी ने मंत्री पद छोडने की अपेक्षा कांग्रेस छोड़कर जिन्ना की खुशी में शामिल होकर मुस्लिम लीग सरकार में साझेदारी करना बेहतर माना था। विदित हो कि जहां श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस मुक्ति के दिन का समारोह मनाते हुए मुस्लिम लीग सरकार में शामिल हो रहे थे तो वहीं अब्दुर रहमान सिदद्की नामक एक ऐसे लीगी मुस्लिम नेता भी थे जिन्होंने जिन्ना की घोषण का विरोध करते हुए लीग की वर्किंग कमेटी से इस्तीफा दे दिया था और जिन्ना की घोषणा को राष्ट्रीय गरिमा का अपमान और अंग्रेजों की चाकरी बताया था। परंतु तथाकथित फर्जी राष्ट्रवादी नेता मुखर्जी और सावरकर को इसी चाकरी में राष्ट्रवाद दिखाई पड़ रहा था। गांधी जी की हत्या की जांच के लिए गठित न्यायिक कमिटी, जस्टिस जीवनलाल कपूर आयोग ने स्पष्ट कहा है कि “सभी तथ्यों और साक्ष्यों को सामने रखने पर निश्चित रूप से साबित हो जाता है कि गांधीजी की हत्या की साजिश सावरकर और उनके ग्रुप ने की!“ इससे सावरकर के स्वतंत्रता आंदोलन विरोधी कृत्य, गांधी जी की हत्या में संलिप्तता, षड्यंत्र और अंग्रेजों से मिलीभगत को छुपाया नहीं जा सकता।